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कविता

जब दिया टिमटिमाए

बुद्धिनाथ मिश्र


नदिया के पार जब दिया टिमटिमाए
अपनी कसम मुझे तुम्हारी याद आए।

प्यासा हिरन मेरा मन आज तरसे
पानी को, पानी न पाय
माटी भी सोना बने जिसके परसे
ऐसी जवानी न पाय
तुममें घुला ऐसे मैं जैसे आँसू
मुस्कान में घुल जाय
बारी उमरिया की धानी चुनरिया-सी
निंदिया मेरी उड़ जाय
जब कोई अँचरा से दियना बुझाए
अपनी कसम मुझे तुम्हारी याद आए।

चंदन की वीणा-सी देह यह तुम्हारी
अंग-अंग बजती सौगंध
किसने गढ़ी है ये सोने की मूरत
किसने रचा यह प्रबंध
ओ मेरी अँधियारी रातों के सपने
आओ बँधें एक छंद
होठों से जोड़ें हम पिछले जनम के
टूटे हुए अनुबंध
जब मेरी विनती मूरत ठुकराए
अपनी कसम मुझे तुम्हारी याद आए।

छूटा है संग जो पान-लता का
मुरझा गझिन कचनार
आँखें बचाके बहुत मन रोया
जब भी पड़ा त्योहार
बीती हुई मोरपंखों की शामें
तुमको रही हैं पुकार
रह-रह के मेरा दहिन अंग फड़के
रह-रह उमड़ आए प्यार
जब सभी अपने हैं लगते पराए
अपनी कसम मुझे तुम्हारी याद आए।

 


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